Saturday 16 January 2016

मुक्कमल किस्से, अधूरी कहानी-1

Date-13-May-2014

कुरुक्षेत्र' के लिए कल दोपहर को जब मैं जम्मू से निकला तो यादों का काफिला आँखों के सामने जीवंत होने लगा| गर्मी ज़्यादा होने के कारण मुझे उसी दिन वापिस लौटने के प्रोग्राम को बदलना पड़ा या शायद मैं ही कुछ वक़्त गुज़ारना चाहता था | पर हा वह पहुँच कर मैंने अपना इरादा बदला| मुझे खुद गिला भी था,के "मान" तू ये क्या कर रहा है,क्यों और अब ये सब किसके लये| पर कमबख्त दिल में कोई टीस मेरी सोच के दायरों को छोटा बना रही थी, उस पर अपनी ही धुन सवार थी,किसी को जवाब देने की धुन,किसी को उसका धोखा याद दिलाने की धुन| हैरान था के वो शख्श कभी जान भी नहीं पाएगा| खैर मैं अपने दिल के हाथो अपना दिमाग हार चूका था. मैं अपने दिमाग को हर वक़्त ये तसलिया दे कर के "जाने दो वक़्त अब वो नहीं रहा और वो भी" मैं थक चूका था. मैं अब सिर्फ अपने दिल की सुनना चाहता था, संसार के इंटेलेक्चुअल माइंडस की क्या राय थी इस बारे में , वो मैं समझना नहीं चाहता था.
इन्ही सब बातों के बीच मैंने कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी की हवा में सांस ली| वहां का हर पेड़- पौधा,चाय की दुकान,ऑडिटोरियम,हर रास्ता मुझे तुम्हारी याद दिला रहा था| मुझे एक पल के लिए भी नहीं लगा के तू मेरे पास नहीं है, मैं उसी बेंच पर बैठा, एक घंटे तेरा इंतज़ार किया ,जो मैं हमेशा करता था, फिर मेरी आँखे वही पुराने किस्से जगा कर देखने लगी ..था तो काल्पनिक पर तेरा वहां होने का ख्याल अछा लगा ...तू आई,वैसे ही मुझ से लड़ना शुरू कर दिया..फिर चप्पल पहन के आ गया, बाल देखिओ अपने, मैं नी जाती तेरे साथ.,और मैं प्यार से तुझे देखता रहा| तूने वैसे ही प्यार से पलके नीची कर के अपने बीच की जो राज की बात थी,वो दोहराई, और मैं बस इतना ही कह सका के " मीठू सोहनी लग री ऐ" और तूने कहाँ के चल चाय पिलाती हु| गर्मी और वह भाई की चाय कमबख्त भुलाए नहीं भूलती मेरे से| तू वैसे ही मेरे लिए  चाय लेकर आई,मैं पीता रहा तू देखती रही. अब लड़ाई का वक़्त शुरू होने वाला था के कहाँ  चले| पर नहीं इस बार मुझे पता था के कहाँ जाना है और मैं तुझे उसी माता के मंदिर में ले गया जहाँ तूने अपने दोनों के लिए मन्नत के धागे बांधे थे. तेरी आँखों में बेचैनी से,एक साथ हज़ारो-लाखो सवाल करता पानी उभर आया था,जो ज़िन्दगी भर तेरी आँखों में न आने देने का मैंने वादा किआ था| तेरे आंसू दिखावे के थे अनामिका,तू चाहती तो हम दोनों जुदा न होते| तू मेरी सोच में सवालो के ऐसे पेड़ लगा कर गई,जिनकी जड़े ज़िन्दगी भर मेरे अंदर बढ़ती रहेगी| |मुझे इस तरह छोड़ कर चले जाने का सवाल मीठू|खैर मैं मंदिर में तुझ से लड़ना नहीं चाहता|वो धागा तो याद है न तुझे मैंने उसमे से तेरे हिस्से की गाँठ खोल दी| क्यूकि जो तूने माँगा था यहाँ वो तुझे मिल गया, तू चाहती थी के तुझे ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए कोई मिले,सो मिल गया, तेरी इस मनोकामना में तूने मुझे नहीं किसी को भी माँगा था और मैं अपने हिस्से की इच्छाए वही बंधी छोड़ आया,जो अब कभी पूरी नहीं होगी| तेरा वो झूठा मायूस चेहरा आज मेरे अंदर तेरे लिए प्यार को नहीं जगा पा रहा था| मैंने तुझे वापिस हॉस्टल छोड़ा,और आज हम लोगो ने  वापसी में कोई बात नहीं की,शायद सब खत्म हो चूका था,बात भी| तेरे जाने के बाद मैं देर रात वहां बैठा रहा, चाय पी और अगली सुबह लौट आया| वही हज़ारो सवाल साथ लिए और कुछ सपनो को उन्ही धागो में बंधा छोड़ कर| न  जाने क्यों ये करके दिल को एक सुकून  मिला..
जिसकी अब कोई चाहत नहीं,उसके धागे क्यों बंधे..
जिसकी कोई चाहत पूरी नहीं हुई,उसके धागे क्यों खुले.

अगर तू सच में मेरे साथ होती, तो जान पाती के मेरी ज़िन्दगी का हर सपना अब उसी धागे की तरह उलझा है. #मान 

1 comment:

  1. hello, Manjeet. May I suggest something? please write more often. or if written, share more often. :)

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