Wednesday 20 January 2016

"काँच"

कुछ वाक़ये बचपन के मासूम मानसिक-पट पर किसी लकीर की भांति होते है| अमिट रहते है और इस लकीर का दर्द शायद कभी कम भी नहीं होता, न ये लकीर कोई देख पता है,न कोई बच्चा कभी किसी से कह पता है| काश ऐसे वाक़ये या कहे हादसे उम्र के साथ जवान होते, पर जब भी सोच का दरया उस दिशा में बहता उम्र बचपन में लौट आती है| न जाने ठिठुरी यादों को इस सर्द मौसम ने कैसा ताप दिया है के ऐसे ही किसी हादसे से मेरी सोच सहम रही है|
रात के इस पहर गाव के लोग सो ही रहे होते है| मैं भी आँगन में सोया था उस दिन| पापा का इंतज़ार करते करते माँ के बिस्तर पर ही नींद आ गई| माँ नहीं सोती वो इंतज़ार करती है| उम्र रही होगी १३-१४ की| मेरे लिए पापा का लेट से आना कोई नया नहीं था | पर जब तक पापा नहीं आते मैं माँ के आँचल में सोए रहता, बाते करता और पापा के आने पर दरवाज़े वाले कमरे में सोता| आज मेरी आँख लग गई और माँ अपने लाडले को भला कैसे नींद से उठाती|
वक़्त तो याद नहीं, मनहूस ही रहा होगा,शोर और चीखने की आवाज़ सुनके मैं  नींद से जागा| आँखे बाद में खुली,होश में आने से पहले मैं शोर की तरफ दौड़ा| देखा के आँगन के कोने में सहमी सी दुबकी हुई माँ किसी लाचार जानवर सी, नशे में लाते बरसता वो| इस से पहले के मैं कुछ समझ पाता चाचा-ताऊपडोसी सब इकठे हो गए दादी ने मुझे उठाया और अपने कमरे में ले जाकर सुला दिया|
सुबह जब माँ ने स्कूल जाने के लिए उठाया, मैं सब कुछ भूल चूका था| हा कुछ अजीब था,लगा के कोई सपना होगा खैर| मैं जल्दी तैयार हुआ और माँ के पास बैठकर खाना खाने लगा| चूल्हे का धुँआ मेरी तरफ ना आए इसलिए माँ ने मुझे अपने पीछे बैठाए रखा | स्कूल बस का हॉर्न सुन कर मैं हाथ धोने को भगा| घड़े के पास उसी कोने में कांच बिखरा था, चुडिया थी| रात का वाक़या जो सो गया था, उसे होश आया|  सामने से माँ के चेहरे को देखा तो वो नम आँखों लिए बोल तो नहीं पाई, मेरा हाथ पकड़ कर स्कूल वैन को इशारा किआ| मैं उसके चेहरे और बिखरी चूड़ियों को देखा स्कूल तो गया, पर मेरा बचपन फिर मेरे साथ नहीं लौटा|
कुछ भावो को शव्दो का लिवास नहीं पहनाया जा सकता,मैने कोशिश भी नहीं शायद उस रात को कभी बया नहीं कर पाउगा| सोचा अपने अंदर की कालिख को काले अक्षर में दबा दू, सुकून मिलेगा,सो लिख लिया #मान

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